Friday, October 21, 2011

दंगा और मौत


वह अब नहीं है
क्या सोचा होगा उसने उस वक्त
जब खुद को पाया होगा
उन्मत्त भीड के बीचोंबीच
निहत्था!
याद आया होगा घर?
चूल्हे में मद्धिम आँच पर पकती अन्तिम रोटी
खेतों की तारबाड
बूढे माँ पिता
जरूरी कागजात
बच्चे का परीक्षाफल
आने वाली सालगिरह
चमकती संगीने लिये
खूँख्वार हो चुके
भयानक दाँत और पंजे निकाले
खूनी चेहरों को क्या एक पल के लिये भी
आया होगा याद
ईश्वर, अल्लाह. यीशू या धर्मग्रन्थ
लालसाओं की अनेक घुमावदार सीढियों के बीच चलते हुए
घूमती दुनिया के चक्के में चल रही हैं गुनह्गार साँसें
कत्ल का मन्जर पेश है
तकलीफ है उन्माद है
अव्यक्त सा अवसाद है
और हम हैं अपने आदर्शों के आवरणों को
उधड्ते देख्नने को अभिशप्त
इस भयानक मन्जर को कैसे करूँ मैं व्यक्त
कि हम अभी भी अपनी- अपनी चाहरदीवारियाँ
दुरुस्त कर रहे हैं


3 comments:

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  2. तकलीफ है उन्माद है
    अव्यक्त सा अवसाद है
    और हम हैं अपने आदर्शों के आवरणों को
    उधड्ते देख्नने को अभिशप्त
    इस भयानक मन्जर को कैसे करूँ मैं व्यक्त
    कि हम अभी भी अपनी- अपनी चाहरदीवारियाँ
    दुरुस्त कर रहे हैं
    वस्तुस्थिति का सामना कराती कविता

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  3. बहुत प्रभावी ढंग से बयान किया है यह त्रासद अनुभव, और उतने ही अच्छे ढंग से खींच दिया है चित्र उस भयावह मंज़र का. बधाई.

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